समाधि एवं उसके प्रकार
तदेवार्थ मात्रनिर्भाशम स्वरुप शुन्यमिव समाधि | 3/3|
अर्थात – जब ध्याता – ध्यान एवं ध्येय में से केवल धेय (अर्थ ) मात्र कि प्रतिति शेष रहता है और अपने स्वरुप का भान नहीं रहता (शुन्य सा हो जाता है ) वह अवस्था समाधि है |
समाधि के प्रकार-
- १.सम्प्रज्ञात(सबीज) समाधि –
ये 4 प्रकार है – वितार्कानुगत,विचारानुगत, आनंदानुगत एवं अस्मिता अनुगत समाधि |
- २.असम्प्रज्ञात(निर्बीज) समाधि –
ये 2 प्रकार के है – भव प्रत्यय एवं उपाय प्रत्यय समाधि |
१.सम्प्रज्ञात(सबीज) समाधि का स्वरुप –
अभ्यास वैराग्य आदि साधनों से जिसकी समस्त बाह्य वृत्तियां क्षीण हो चुकी है ,एसे स्फटिक मणि के भाती निर्मल चित्त का जो ग्रहीता(पुरुष) , ग्रहण( अंतःकरण और इन्द्रियां) तथा ग्राह्य(पंचभूत और विषयों) में स्थित हो जाना और तदाकार हो जाना है यही सम्प्रज्ञात समाधि है !
–क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राहयेषुतत्स्त्तजनतासमापत्तिः!१/४१!
असम्प्रज्ञात समाधि के चार प्रकार है वितर्क विचार , आनंद और अस्मितानुगत समाधि !
–वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्संप्रज्ञातः !१/१७!
सम्प्रज्ञात योग के ध्येय पदार्थ तीन मने गए है – १.ग्राह्य (विषय), २.ग्रहण(इन्द्रिय ), ३.ग्रहिता (बुद्धि )
समाधि के विषय –
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वितार्कानुगत समाधि (सवितर्क- निर्वितर्क) – महाभूत अर्थात स्थूल ;
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विचारानुगत (सविचार- निर्विचार) – तन्मात्रायें अर्थता सूक्ष्म ;
वितार्कानुगत समाधि (सवितर्क-निर्वितर्क समाधि)
जब स्थूल पदार्थ को लक्ष्य बनाकर उसके स्वरुप को जानने के लिए योगी अपने चित्त को उसमे लगता है है तब पहले पहल होने वाला अनुभव में वस्तु के नाम , रूप और ज्ञान के विकल्प का मिश्रण रहता है ! अर्थात उसके स्वरुप के साथ – साथ नाम और प्रतीति की भी चित्त में स्फुरणा रहती है ! अतः इस समाधि को सवितर्क/ सविकल्प समाधि कहते है !
इसके बाद शब्द और प्रतीति की स्मृति के भली भाती लुप्त हो जाने पर , स्वरुप से शून्य हुई के सदृश्य केवल ध्येय मात्र को प्रत्यक्ष करने वाली चित्त की स्थिति निर्वितर्क समाधि है !–स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूप्शून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का!४३!
विचारानुगत (सविचार-निर्विचार )समाधि-
इसी प्रकार सूक्ष्म पदार्थो में की जाने वाली सविचार और निर्विचार समाधि है !–एतयैव सविचारा निर्विचारा च् सुक्ष्मविष्या व्याख्याता !१/४४!
इस समाधि के ध्येय सूक्ष्म विषय है !
ये सभी समाधि में क्योकि बीज रूप से किसी न किसी ध्येय पदार्थ को विषय करने वाली चित्त वृत्ति का अस्त्तित्व सा रहता है ! अतः सम्पूर्ण वृतियो का पूर्णतः निरोध न होने के कारण कैवल्य लाभ नहीं हो पाता है और ये सबीज समाधि कहलाते है !–ता एव सबीजः समाधिः !१/४६!
निर्विचार समाधि में साधक प्रवीणता प्राप्त कर लेने पर रजो गुण और तमो गुण का आवरण क्षीण हो जाता है सतोगुण की प्रधानता हो जाती है , जिससे चित्त अत्यंत निर्मल हो जाता है ! इससे योगी एक ही काल में समस्त पदार्थ विषयक यथार्थ ज्ञान हो जाता है !-निर्विचार्वैशारद्येध्यात्म्प्रसादः! १/४७!
ऋतम्भरा प्रज्ञा का स्वरुप व महत्व-
उस समय योगी की बुद्धि (प्रज्ञा), ऋतंभरा (सत्य ) को धारण करने वाली हो जाती है !इस स्थिति में किसी भी विषय में भ्रान्ति का लेश मात्र भी नहीं रहता ! अविद्या,संशय,विपर्यय भी पूर्णतः समाप्त हो जाते है ! साधक सत्य ही दर्शन, ग्रहण व प्रकट करता है !–ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा !1/४८!
श्रवण और अनुमान से होने वाली बुद्धि की अपेक्षा यह बुद्धि भिन्न विषय वाली है , क्योकि यह विशेष रूप से अर्थ का साक्षात्कार करने वाली है !
–श्रुतानुमानप्रग्याभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् !१/४९!
मनुष्य जो कुछ भी अनुभव करता है , जो कुछ भी क्रिया करता है , उन सबके संस्कार अन्तः कारन में इकट्ठे हुए रहते है, इस प्रकार इस बुद्धि से उत्त्पन्न संस्कार अन्य दुसरे संसार में भटकने वाले संस्कारो को विनिष्ट करने वाला है ! –तज्जः संस्कारोन्यसंस्कारप्रतिबन्धी !१/५०!
२.असम्प्रज्ञात(निर्बीज) समाधि का स्वरुप
जब ऋतंभरा प्रज्ञा से उत्त्पन्न उच्च संस्कारो से भी आसक्ति न रहने से उन संस्कारो का भी निरोध हो जाता है , तब सुध – बुध का ही निरोध हो जाता है ! इस स्थिति में चित्त की कोई भी वृति शेष नहीं रहता !सभी संस्कारो के बीज समाप्त हो जाने से निर्बीज समाधि कहते है ! –तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः !१/५१!
विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारषेशोन्यः !१८!
साधक जब पर वैराग्य को प्राप्ति हो जाती उस समय स्वाभाव से चित्त संसार की और नहीं जाता ! वह उनसे अपने आप उपरत हो जाता है ! पर वैराग्य में विवेक ख्याति रूप अंतिम वृत्ति भी निरुद्ध हो जाती है इस स्थिति को विराम प्रत्यय कहते है ! जब प्रकृति संयोग का आभाव हो जाता है तब द्रष्टा का अपने स्वरुप में स्थिति हो जाती है ! इसी का नाम कैवल्य है !
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् !!1/१९!